भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी केवल पुरुषों के संघर्ष की नहीं है, बल्कि इसमें महिलाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान है। महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में न केवल भाग लिया, बल्कि इसे संगठित और सशक्त भी बनाया। महिलाओं की भागीदारी ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा और मजबूती प्रदान की, और उनकी भूमिका इस संघर्ष में एक महत्वपूर्ण तत्व बन गई।
‘भारत माता’ और राष्ट्रीयता की भावना
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘भारत माता’ का विचार राष्ट्रीयता की भावना को जागरूक करने का एक शक्तिशाली प्रतीक बन गया। इस विचार ने महिलाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। ‘भारत माता’ के माध्यम से महिलाओं की भूमिका को राष्ट्रीय आंदोलन में मान्यता मिली, और उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय भागीदार के रूप में देखा जाने लगा। इसने महिलाओं के लिए सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने और विभिन्न रूपों में प्रतिरोध करने का मार्ग प्रशस्त किया।
सामूहिक प्रतिरोध में महिलाओं का योगदान
महिलाओं का समर्थन स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण साबित हुआ, विशेष रूप से विदेशी कपड़ों के बहिष्कार और दुकानों के पिकेटिंग जैसे प्रभावी प्रतिरोध के रूपों में। महिलाओं ने न केवल इन आंदोलनों में हिस्सा लिया, बल्कि उन्हें संगठित और संचालित भी किया। उनका योगदान राष्ट्रीय आंदोलन को संगठित करने और जनसमर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण रहा।
महिला बौद्धिकता और नेतृत्व
महिला बुद्धिजीवियों ने स्वतंत्रता संग्राम में नेतृत्व की भूमिका निभाई और महिलाओं को बड़े पैमाने पर इस आंदोलन में शामिल किया। उन्होंने एक मध्यवर्ती सामाजिक स्थान का निर्माण किया, जिसमें महिलाएं घर और सार्वजनिक जीवन के बीच स्वतंत्र रूप से अपनी भूमिका निभा सकीं। इससे न केवल महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ, बल्कि उन्हें घरेलू बंदिशों से बाहर निकालकर सार्वजनिक जीवन, पेशे और शासन में अपनी जगह बनाने का अवसर मिला। यह न केवल राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती प्रदान करता है, बल्कि इससे लैंगिक समानता के द्वार भी खुलते हैं।
प्रमुख महिला स्वतंत्रता सेनानी
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई प्रमुख महिला स्वतंत्रता सेनानी रहीं, जिन्होंने अपने साहस और नेतृत्व से आंदोलन को आगे बढ़ाया।
एनी बेसेन्ट (1847-1933): एनी बेसेन्ट ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने होम रूल लीग की स्थापना की और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष (कलकत्ता, 1917) बनीं। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की सह-संस्थापक के रूप में शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपने राजनीतिक कार्य को आगे बढ़ाने के लिए साप्ताहिक समाचार पत्र ‘कॉमनवेल’ की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने ‘मद्रास स्टैंडर्ड’ खरीदा और उसका नाम बदलकर ‘न्यू इंडिया’ रख दिया, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके उग्र प्रचार का मुख्य माध्यम बन गया। लोग आंदोलन की प्रगति की खबरों के लिए ‘न्यू इंडिया’ को उत्सुकता से पढ़ते थे और डॉ. बेसेंट के संपादकीय उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बनते थे। उन्होंने स्वतंत्रता को ‘होम रूल’ के रूप में परिभाषित किया। बेसेंट के होम रूल लीग की शुरुआत 1 सितंबर 1916 को हुई थी।
भीकाजी कामा (1861-1936): भीकाजी कामा ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और स्वराज (स्व-शासन) के लिए संघर्ष किया। 1907 में, उन्होंने जर्मनी में भारतीय ध्वज फहराया, जो उन्होंने और विनायक दामोदर सावरकर ने डिज़ाइन किया था। उन्होंने पेरिस में ‘पेरिस इंडियन सोसाइटी’ की स्थापना की और ‘बंदे मातरम’ जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से साहित्यिक योगदान दिया।
मतंगिनी हज़रा (1870-1942): मतंगिनी हज़रा ने महात्मा गांधी से प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और ”गाँधी बुढ़ी” (पुरानी गांधीवादी महिला) के रूप में प्रसिद्ध हुईं। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और नमक सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार हुईं।
सरोजिनी नायडू (1879-1949): भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन का अभिन्न हिस्सा रही और उन्होनें महात्मा गांधी और उनके स्वराज के विचार की अनुयायी बन इनका प्रचार—प्रसार किया। 1930 के नमक मार्च में भाग लेने के लिए उन्हें गांधी, जवाहरलाल नेहरू और मदन मोहन मालवीय सहित अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ गिरफ्तार किया गया था। सरोजिनी सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व करने वाली प्रमुख हस्तियों में से एक थीं। उस समय उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बार-बार गिरफ्तार किया गया और यहां तक कि 21 महीने (1 वर्ष 9 महीने) जेल में भी बिताने पड़े। उन्हें 1925 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और बाद में 1947 में संयुक्त प्रांत की राज्यपाल बनीं, जो भारत के डोमिनियन में राज्यपाल का पद संभालने वाली पहली महिला बनीं।कवयित्री के रूप में उनके काम ने उन्हें महात्मा गांधी द्वारा ‘भारत की कोकिला’ या ‘भारत कोकिला’ की उपाधि दिलाई, क्योंकि उनकी कविता में रंग, कल्पना और गीतात्मक गुणवत्ता थी। नायडू की कविताओं में बच्चों की कविताएँ और देशभक्ति, रोमांस और त्रासदी जैसे अधिक गंभीर विषयों पर लिखी गई अन्य कविताएँ शामिल हैं। 1912 में प्रकाशित, ‘इन द बाज़ार्स ऑफ़ हैदराबाद’ उनकी सबसे लोकप्रिय कविताओं में से एक है।
रामादेवी चौधरी (1899-1985): रामादेवी ने ओडिशा में नमक सत्याग्रह आंदोलन में महिलाओं को संगठित किया। उन्होंने हरिजन सेवा संघ की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और ‘सेवाघर’ आश्रम की स्थापना की।
विजया लक्ष्मी पंडित (1900-1990): विजया लक्ष्मी पंडित 1937 में संयुक्त प्रांतों की कैबिनेट में स्थान प्राप्त करने वाली पहली महिला मंत्री बनीं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनने का गौरव भी प्राप्त किया।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय (1903-1988): कमलादेवी चट्टोपाध्याय एक स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक थीं। उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सह-स्थापना की और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया।
सुचेता कृपलानी (1908-1974): सुचेता कृपलानी ने 1940 में ऑल इंडिया महिला कांग्रेस की स्थापना की और भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली 15 महिलाओं में से एक थीं। वह उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री भी बनीं।
अरुणा आसफ अली (1909-1996): अरुणा आसफ अली ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ग्वालिया टैंक मैदान में भारतीय ध्वज फहराया। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम की ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ कहा जाता था।
बिना दास (1911-1986): बिना दास ने 1932 में बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन की हत्या का प्रयास किया। उन्होंने कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।
प्रीतिलता वड्डेदार (1911-1932): प्रीतिलता वड्डेदार ने क्रांतिकारी समूह ‘सूर्य सेन’ के नेतृत्व में पहरतली यूरोपियन क्लब पर 1932 में सशस्त्र हमले का नेतृत्व किया। उन्होंने ब्रिटिश पुलिस से बचने के लिए सायनाइड का सेवन कर लिया।
कल्पना दत्त (1913-1995): कल्पना दत्त चटगांव शस्त्रागार लूट में शामिल थीं और उन्होंने खूदीराम बोस की शहादत से प्रेरणा ली।
लक्ष्मी सहगल (1914-2012): कैप्टन लक्ष्मी सहगल आज़ाद हिंद फौज की सदस्य थीं और रानी झांसी रेजिमेंट की जिम्मेदारी संभालती थीं। उन्होंने 1500 महिला सैनिकों का एक रेजिमेंट तैयार किया।
रानी गाइदिनल्यू (1915-1993): रानी गाइदिनल्यू ने मणिपुर, नागालैंड और असम में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। उन्होंने नगा जनजातीय धर्म को पुनर्जीवित करने और स्व-शासन की स्थापना के लिए ‘हेराका आंदोलन’ में भाग लिया।
उषा मेहता (1920-2000): उषा मेहता ने गुप्त ‘कांग्रेस रेडियो’ की स्थापना की, जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महत्वपूर्ण घटनाओं का प्रसारण किया और स्वतंत्रता आंदोलन को एकजुट रखा।
कनकलता बरुआ (1924-1942): कनकलता बरुआ भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे युवा शहीदों में से एक थीं। 17 साल की उम्र में, उन्होंने गोहपुर पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने का नेतृत्व किया और अपने जीवन का बलिदान दिया।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका केवल एक सहयोगी की नहीं थी, बल्कि उन्होंने इस संघर्ष में एक केंद्रीय भूमिका निभाई। उनकी भागीदारी ने न केवल राष्ट्रीय आंदोलन को सशक्त किया, बल्कि उन्हें भी सशक्त बनाया। महिलाओं ने अपने साहस और नेतृत्व के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दी और स्वतंत्रता संग्राम में अपनी जगह सुनिश्चित की। उन्होंने न केवल भारत को स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि स्वतंत्रता के बाद के भारत में भी महिलाओं के लिए नए अवसरों और अधिकारों के द्वार खोले। उनका संघर्ष और योगदान भारतीय इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा।